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सागर वॉच / अगर आपसे पूछा जाये कि कोई एक शिक्षक जो विद्यालय जा कर कक्षा में विद्यार्थियों को लगातार एक हफ्ते तक पढ़ाता है या कोई एक सरकारी चिकित्सक है जो लगातार एक हफ्ते तक सरकारी अस्पताल जाकर मरीजों का उपचार करता है या कोई सरकारी कर्मचारी है जो हफ्ते भर लगातार कार्यालय जाकर अपने काम काज करता है तो क्या उसके द्वारा, अपने इस कर्त्तव्य निर्वहन को अपनी उपलब्धि के तौर पर प्रचारित करने की, अपेक्षा रखने को उचित माना जा सकता है? 

क्या वह भी नेताओं की अतिप्रिय और उनकी जागीर सी माने जाने वाली "श्रेय लूटने की राजनीति" की तर्ज पर, अपने सामान्य कामकाज रुपी कर्त्तव्य निर्वहन को भी उपलब्धि के तौर पर प्रचारित करने के लिए शहर या गाँव की गलियों या चौराहों पर फ्लेक्स खड़े करवा सकता है? अखबार में खबर निकलवा सकता है? ..और मुहल्लों-मुहल्लों में अपने लिए सार्वजानिक सम्मान समारोह आयोजित करवा सकता है? 

आप सभी के जवाब अलग-अलग हो सकते हैं। हम सभी के जवाबों का सही-सही अनुमान भी  नहीं लगा सकते हैं पर फिर भी कुछ लोगों से चर्चा के बाद ऐसा लगता है  कि कुछ बिन्दुओं पर तो सबकी राय लगभग मिलती जुलती नजर आ रही है। 

एक वर्ग का कहना है कि अगर कोई शिक्षक स्कूल रोज पढ़ने जाता है, चिकित्सक रोज अस्पताल जाकर मरीजों का इलाज करता है या सरकारी कर्मचारी रोज दफ्तर जाकर या क्षेत्र में जाकर काम करते हैं तो इसमें उपलब्धि वाली क्या बात है? ये तो उनका कर्त्तव्य है वे जो काम-काज करते हैं उसका उन्हें पैसा मिलता है? उपलब्धि की बात तो तब आयेगी जब वो अपने सामान्य जिम्मेदारियों से हटकर और नफे-नुकसान की परवाह किये बिना समाज हित में कुछ करते

तो वहीं दुसरे वर्ग का कहना है कि जनप्रतिनिधि भी तो सरकार से वेतन भत्ते लेते हैं और विकास कार्यों को अंजाम देना व् जनता की समस्याओं को हल करना उनका भी कर्त्तव्य है, तो फिर वे क्यों हर छोटी-छोटी बात का श्रेय लेते हैं? उनके द्वारा अपने सामान्य कर्तव्यों को निर्वहन करने को उपलब्धि के तौर पर प्रचारित करना कैसे उचित हो सकता है?

तीसरा वर्ग भी है उसने भी बिलकुल अलग ही सवाल खड़े किये। उनका कहना है चलो मान भी लें कि इनका सामान्य काम-काज भी उपलब्धि है। जिसका ये खूब प्रचार प्रसार करते हैं तो क्या सब कुछ अच्छा-अच्छा ही हो रहा है? विकास कार्य अगर हो रहे हैं तो उनके साथ-साथ  भ्रष्टाचार के  आरोप भी तो सामने आ रहे हैं ? काम के गुणवत्ता हीन होने के मामले भी मीडिया में उछलते रहते हैं तो क्या इन सब बातों की जिम्मेदारी भी इन कथित "श्रेय-पिपासु" लोगों को नहीं लेना चाहिए? 

दिनों-दिन श्रेय लेने की राजनीति के परवान चढ़ते जाने के चलते समाज के एक बहुत बड़े वर्ग में यह धारणा बनती नजर आ रही है कि श्रेय लेने की राजनीति के जोर पकड़ते जाने के चलते लोग छोटे-छोटे कामों का भी श्रेय लेने को उतावले नजर आने लगे हैं। लेकिन काम-काज में कोताही बरते जाने, भ्रष्टाचार और गैर जिम्मेदार तरीके से होने वाले कामों की जिम्मेदारी कोई नहीं लेना चाह रहा है यानी मीठा-मीठा गप और कड़वा कड़वा थू। लेकिन संत्री और मंत्री सभी को कौन सिखाएगा सबक कि श्रेय सिर्फ उपलब्धि का नहीं बल्कि जो अच्छा नहीं हुआ उसका भी लेना पड़ेगा

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