Poetry-फिर-घर-आँगन-महकाएगी

Poetry-फिर-घर-आँगन-महकाएगी

  फिर घर आँगन महकाएगी 

 

फिर से धरती मुसकाएगी

          फिर गीत खुशी के गाएगी

 फिर फूल खिलेंगे बगिया में

           फिर से सावन रुत आएगी।



हम दूर अभी एक दूजे से रहने को माना शापित हैं यह दूरी हमको निश्चित ही कुछ और पास ले आएगी।

अब कौन बचा ऐसा जिसको
खोने के दुःख का भान नहीं
सामूहिक दुःख की अनुभूति
हम सब को एक बनाएगी।

यह धरा पढ़ाती है हम को अति कोमलता से पाठ कई सब याद रखें अथवा इतनी निष्ठुरता से समझाएगी।

तब राह नई बन पाएगी।
सब शासित शासक सजग रहें
चेताएँ भी चिन्तित भी हों
हम भूल अगर स्वीकार करें


माना पतझड़ की बेला में दुःख भी है गहन उदासी है
लेकिन वसन्त की पुरवाई

फिर घर आँगन महकाएगी।
साभार : संतोष रोहित

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Sagar Watch

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